संत कबीर दास जी ने भी कहा है, संत कबीर दास, कबीर दास

 

संत कबीर दास जी ने भी कहा है, संत कबीर दास, कबीर दास


💐💐💐ईश दर्शन 💐💐💐

ईश्वर की खोज में सारा संसार व्याकुल है।तीर्थ, व्रत, उपवास, होम, यज्ञ , मंत्र , जाप, आदि को हम ईश दर्शन का सुलभ साधन मानते रहे हैं। परन्तु , जब हम हमारे आर्ष ऋषियों , महर्षियों  , संतों आदि  की वाणियों पर गहन विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि हमारे सारे प्रयास निरर्थक जा रहे हैं। अब हम कुछ विचारें , उन ईश दर्शन के सुलभ साधनों पर। तीर्थ से ईश्वर दर्शन का लाभ अवश्य होगा। तीर्थ है क्या? " पापात त्रायते इति तीर्थ: "

जो पाप से त्राण दिला दे वही तीर्थ है। परन्तु , हम पाप करने की सीढ़ी बना लिया है तीर्थ को। पाप करो, कुकर्म करो गंगा में डुबकी लगालो , मंदिरों में दर्शन कर लो सारे  पाप धूल गए।फिर पाप करना शुरू कर दो।यही तीर्थ के वारे में लोगों ने जाना है। तीर्थ को पहले जानें------------

" नास्ति मातृ समं तीर्थं पुत्राणां च पितु: समम् ।" अर्थात पुत्र के लिए माता- पिता से बढ़कर कोई अन्य तीर्थ नहीं है।किन्ही माता से पूछो कि उनका पुत्र क्या उनकी सेवा 

करता है या नहीं ? यदि पुत्र माता - पिता में ही ईश दर्शन करने वाला होगा तो माता- पिता कह बैठेंगे कि उनका पुत्र श्रवण कुमार है। वे पुत्र की तुलना राम , कृष्णा आदि से नहीं करेंगे। अपने तीर्थ को त्यागकर हम खाक छानने को तीर्थ समझ बैठे हैं। 'व्रत ' का अर्थ होता है प्रतिज्ञा। यदि हम व्रत लें कि आज से असत्य भाषण नहीं करूंगा। श्रेष्ठों के प्रति श्रद्धा का भाव रखूंगा।सबों से प्यार करूंगा। यह हुआ व्रत । परन्तु , जब हम किसी से पूछते हैं कि भाई आओ , नास्ता कर लें । सामने वाले का उत्तर होगा मैं शाम तक व्रत में हूँ । उन्हें कौन समझाए कि व्रत जीवन भर के लिए होता है। कोई व्रत ले कि " मैं शाम तक देश की रक्षा का व्रत लेता हूँ।" क्या यह व्रत जचा ।देश की रक्षा का व्रत निभाना प्राणान्त तक होता है। ' उपवास ' में दो पद हैं , उप और वास।' उप ' का अर्थ होता है ' समीप'

'वास ' रहना। सत्य के समीप , ज्ञान के समीप ,वैराग्य के समीप , गुरु के समीप बैठना ही उपवास है। परन्तु , हम एक शाम भोजन छोड़ दिए और हमारा उपवास हो गया।

ऐसा करके हम दूसरे को ठगते हैं या खुद ठगाते हैं? सत्य यही है कि हम स्वयं को ठगाते हैं। ' होम ' यजन करने के पूर्व की एक कार्य है। गुरु से प्राप्त ज्ञान कुण्ड में अपने अन्दर के सभी दुर्विचारों को भष्म कर देना ही होम या हवन है। हमारे हव्य सामग्री हमारे दुर्विचार , लोभ , मोह तृष्ना, अहंकारादि हैं न कि नवग्रह की लकड़ियां , यव , धूप, तिल आदि। अपने दुर्विचारों के नष्ट होने के उपरान्त हम ' यज्ञ ' के उत्तराधिकारी होते हैं।' यज्ञ' संस्कृत भाषा के 'यज् ' धातु  में जब हम 'घञ् ' प्रत्यय करते हैं तब यज्ञ शब्द की निष्पत्ति होती है। यज्  धातु से ही यजन , यजमान , यज्ञी , आदि शब्द की व्युत्पत्ति है। यजन का अर्थ होता है , वह पवित्र काम करना जिससे आत्मकल्याण के साथ-साथ पूरे ब्रह्मांड का कल्याण । यज्ञ के अन्त में हम सभी  समवेत स्वर में कहते भी हैं----

  " सर्वे भवन्तु सुखिनः , सर्वे सन्तु निरामयाः ।

     सर्वे भद्राणि पश्यन्तु , मा कश्चितदुखभागभवेत।।"

अब हम मंत्र शब्द पर विचार करें । विद्वानों से मंत्रणा लेना, अपने शुभ चिंतकों की बात मानना ही मंत्र है। भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल के कल्याण के लिए मात्र एक छोटा वाक्य कहा---" मैं तो ठहर गया,  भला तूँ  कब ठहरेगा ? " यही अंगुलिमाल को बदल दिया। जो कुछ करिश्मा कर दे , बदल दे , वही मंत्र है। अन्त में जप है।

जप का लाक्षणिक अर्थ होता है सुकृत्यों की बारम्बारता।

                  इसप्रकार स्पष्ट हुआ कि ईश दर्शन के जो उपाय हमने सोच रखी है , व्यर्थ है।वेदांग ने कहा----

● यच्छ्रोत्रेण न  शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम ।

    तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।

    ( कठोपनिषद खण्ड-01 मंत्र -07)

      कान से जिसके सम्बन्ध में सुनते हो वह ब्रह्म नहीं है।

बल्कि , कान जिस सत्ता के कारण सुनता है, वही ब्रह्म है। और कान हमारे अंदर के चेतन सत्ता के कारण ही सुनता है। अर्थात ईश्वर हमरे अन्दर है।ऐसा आंख, प्राण , मन आदि के सम्बंध में भी कहा गया है। अन्यत्र कहा गया है----

● पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतश: । एतदद्वैतत ।।

    ग्यारह द्वार वाले नगर में अजेय, अवक्र , चेतन रहता है , वही ब्रह्म है। ग्यारह द्वार का नगर मानव का शरीर है।

के द्वार हैं-- एक मुँह , दो नासिका छिद्र , दो कर्ण छिद्र, दो आंख , एक मल द्वार , एक पेशाव द्वार , एक ब्रह्म रन्ध्र , और एक भ्रू मध्य रन्ध्र । इसी एकादश द्वार वाले नगर में चेतन ब्रह्म रहते हैं।

            एक विदेशी संत ने कहा है--------

"  The home of bliss is within you . "

तुम्हारे अंदर ही आनन्द स्वरूप ब्रह्म का निवास है।


        सद्गुरु कबीर ने भी कहा है----------

● ज्यों तिल माही तेल है , ज्यों चकमक में आग ।

   तेरा साईं   तुज्झ में ,  जागि सकै तो जाग ।।

  ●ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों पुहुपन में वास ।

    कस्तूरी का मृग ज्यों , फिर- फिर सूंघे घास।।

●  मोको कहाँ ढूढे रे वन्दे , मैं तो तेरे पास में ।

 ● जलहि में में पियासी , मोहे सुनि- सुनि आबे हंसी।

      तुलसी बाबा ने कहा----

        ● ज्यों बरदा बनिजार का घूमे घनेरो देश ।

           खांड लदे भूंस खाइहें बिनु गुरु के उपदेश।

        कहत सकल घट राम है , तो खोजत केहि काज।

        तुलसी ऐसी कुमति सुनी , उर आवत अति लाज।।

                  ईश हमारे अन्दर हैं । हम व्यर्थ भटक रहे हैं।

 " छाड़ि भटकना , भीतर देखो , मालिक तेरे पास है। "


        सबों को साहेब वन्दगी👏👏👏👏👏👏👏

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